September 30, 2009

सरे शाम से चल रही थी पुरवाई

सरे शाम से चल रही थी पुरवाई
जिक्र उसका हुआ आँख भर आई

अहमियत उसकी क्या है बतलायें
वो इक जिस्म जिसकी मैं परछाई

खामोशी को मेरी बुज़दिली न समझो
ब्यान-ए-इश्क में है प्यार की रुसवाई

मिलना उसका अब नामुमकिन है
बारहा दिल को बात ये समझाई

गयी बूंदे कुरेद सूखे ज़ख्मों को
बरखा ये अज़ब रंग लाई...

2 comments:

  1. पाँचवे शेर के दूसरे मिसरे मे वज़न कुछ कम लग रहा है । बाकी गज़ल बढ़िया है ।

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  2. behro-wazn se ht kr padhaa hai
    mn ke khayaalaat ko izhaar dene ki
    ek achhee koshish hai....
    badhaaee .
    ---MUFLIS---

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