September 21, 2009

ख्यालों को दीवारों से टकरा रहा हूँ.

वक़्त रात का था
सब सो गए थे
आँखे मगर मेरी
लगातार सजल
ज्यूँ छत का पंखा
लगातार चकरा रहा था
तस्वीर कई तरह की
उभरी ज़हन में और मिट गयी
पलकें झपकी नहीं थी कही देर से
धीमी रौशनी झिलमिलाती रही भीगी आँखों में
पलकें नहीं झपकी यूँ आँखे सजल थी ???
या आँखे सजल थी यूँ पलकें नहीं झपकी ???
कई ख्याल मन को चौंका रहे थे
हाँ यही तो कहा था उसने जाते जाते
हालत और बदतर हो जाएंगे
हालत और बदतर हो जाएंगे
क्यूँ कहा समझ नहीं पा रहा था
धमकी थी या चेता रहा था
बहुत क्रूर मगर उसका कहा था
असर उन बोलों का कैसे कहूं मैं
नींद आँखों से दूर थी कोसो
और चाहत भी नहीं के अब पास आये
पंखे सा लगातार चकरा रहा हूँ
ख्यालों को दीवारों से टकरा रहा हूँ.
ख्यालों को दीवारों से टकरा रहा हूँ.

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