September 21, 2009

अपनी फ़ितरत वो कब बदलता है

अपनी फ़ितरत वो कब बदलता है
साँप जो आस्तीं में पलता है
दिल में अरमान जो मचलता है
शेर बन कर ग़ज़ल में ढलता है
मुझको अपने वजूद का एहसास
इक छ्लावा-सा बन के छलता है
जब जुनूँ हद से गुज़र जाये तो
आगही का चराग़ जलता है
उसको मत रहनुमा समझ लेना
दो क़दम ही जो साथ चलता है
वो है मौजूद मेरी नस—नस में
जैसे सीने में दर्द पलता है
रिन्द 'गौतम'! उसे नहीं कहते
पी के थोड़ी-सी जो उछलता है.

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