October 16, 2009

कभी सुबह से कभी सहर से लड़ा करती थी,


कभी सुबह से कभी सहर से लड़ा करती थी,
मुद्दतें हुयी एक शमा यहाँ जला करती थी,

क्या बात हुयी के आज सर-ए-शाम बंद हो गयी,
एक खिड़की जो औकात-ए-सहर खुला करती थी,

सिमटा है दिल क्यों? अब के बार इस तूफ़ान में,
गरजते थे बादल, बिजली पहले भी गिरा करती थी,

कुछ कसूर-ए-किसमत-ए-अमां का है वरना,
नाउम्मीदी इस दिल से दूर ही रहा करती थी,

खता मेरी ही थी जो दुनिया से दिल लगा बैठे,

ये कमबख्त जिन्दगी कब किसी से वफ़ा करती थी,


मैं काश ये कह सकता "मुझे याद कीजिये"
कभी मेरी याद जिनकी धड़कन हुआ करती थी,

देखो आज हम उनकी दुनिया में शामिल ही नहीं,

जिनकी दुनिया की रौनक हम से हुआ करती थी,

No comments:

Post a Comment