October 2, 2009

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया


कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं
उनको क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया
किस लिए जीते हैं हम किसके लिए जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त!
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

देखा है जिंदगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
ऐ रूहे-उम्र जाग, कहां सो रही है तू
आवाज दे रहें पयम्बर सलीब से
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएं बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से

तुम अपना रंजो-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें उन की क़सम, ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो
मैं देखूं तो सही, दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो
ये माना मैं क़ाबिल नहीं हूं इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
वो दिल जो मैंने मांगा था मगर ग़ैरों ने पाया था
बड़ी शै है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया,
बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया,
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया,
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया,
गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया


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