क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.
कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूं गर हिसाब में.
मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला ना दिया हो शराब में.
ता फिर ना इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गए आये जो ख्वाब में.
ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में.
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