सरे शाम से चल रही थी पुरवाई
जिक्र उसका हुआ आँख भर आई
अहमियत उसकी क्या है बतलायें
वो इक जिस्म जिसकी मैं परछाई
खामोशी को मेरी बुज़दिली न समझो
ब्यान-ए-इश्क में है प्यार की रुसवाई
मिलना उसका अब नामुमकिन है
बारहा दिल को बात ये समझाई
गयी बूंदे कुरेद सूखे ज़ख्मों को
बरखा ये अज़ब रंग लाई...
पाँचवे शेर के दूसरे मिसरे मे वज़न कुछ कम लग रहा है । बाकी गज़ल बढ़िया है ।
ReplyDeletebehro-wazn se ht kr padhaa hai
ReplyDeletemn ke khayaalaat ko izhaar dene ki
ek achhee koshish hai....
badhaaee .
---MUFLIS---