October 20, 2009

और तुममे मैं समाता गया..

आज फ़िर शाम डूब रही है
तेरे इन्तज़ार की,
मैने काफ़ी कोशिश की तुम्हे भूल जाने की,
और एक मन्ज़िल के करार से,
रास्ते तो मिल गये
लेकिन हर मोड पर एक नये समझौते के साथ
ज़मीर आडे आता गया
और मन्ज़िल के करीब आकर
सारा आस्मा जैसे छूट गया,
और तुममे मैं समाता गया..

October 17, 2009

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा


अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शम्मअ कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-क़ातिल नहीं रहा

बर-रू-ए-शश जिहत दर-ए-आईनाबाज़ है
याँ इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल नहीं रहा

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए-सितमहा-ए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वाँ
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

October 16, 2009

अपने हाथों की लकीरों में बसाना चाहता हुँ...




इस बार कुछ ऐसा मैं चाहता हूँ
तुम को अपना बनाना चाहता हूँ

भुला के अपने सारे गम,
तुझे दिल से अपनाना चाहता हूँ

तुम्हे तुम्हारी इजाज़त से
अपने दिल में बसाना चाहता हूँ

अपने नाम के साथ जोड़ कर तुम्हारा नाम
दुनिया को सर-ए-आम दिखाना चाहता हूँ

कहीं कबुलियत की घड़ी ना आ जाये
तुम्हे हर दुआ में मांगना चाहता हूँ

हो जाओ तुम मेरी और मैं तुम्हारा
हर पल हब ये ही अहसास चाहता हूँ,

तुम से ही बस मोहब्बत की है मैंने,
अपनी सारी जिन्दगी तुम्हारे संग बिताना चाहता हूँ,

हक से कहता हूँ तुम्हे मैं अपना,
बस तुमसे भी ये कहलाना चाहता हूँ,

अपनी हाथो की लकीरों में बसना चाहता हूँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कभी सुबह से कभी सहर से लड़ा करती थी,


कभी सुबह से कभी सहर से लड़ा करती थी,
मुद्दतें हुयी एक शमा यहाँ जला करती थी,

क्या बात हुयी के आज सर-ए-शाम बंद हो गयी,
एक खिड़की जो औकात-ए-सहर खुला करती थी,

सिमटा है दिल क्यों? अब के बार इस तूफ़ान में,
गरजते थे बादल, बिजली पहले भी गिरा करती थी,

कुछ कसूर-ए-किसमत-ए-अमां का है वरना,
नाउम्मीदी इस दिल से दूर ही रहा करती थी,

खता मेरी ही थी जो दुनिया से दिल लगा बैठे,

ये कमबख्त जिन्दगी कब किसी से वफ़ा करती थी,


मैं काश ये कह सकता "मुझे याद कीजिये"
कभी मेरी याद जिनकी धड़कन हुआ करती थी,

देखो आज हम उनकी दुनिया में शामिल ही नहीं,

जिनकी दुनिया की रौनक हम से हुआ करती थी,

सिर्फ इशार्रों में ही बात ना करना...


दुःख दर्द के मारों से मेरा ज़िक्र ना करना,
घर जाओ तो यारों से मेरा ज़िक्र ना करना

वो ज़ब्त न कर पाएंगे आखों के समंदर,
तुम राह गुज़रों से मेरा ज़िक्र ना करना

फूलों के नशेमन में रहा हूँ मैं सदा से,
देखो कभी खारों से मेरा ज़िक्र न करना

शायद ये अँधेरे ही मुझे राह दिखायेंगे,
अब चाँद सितारों से मेरा ज़िक्र न करना,

वो मेरी कहानी को गलत रंग ना दे दें
अफसाना निग्रानो से मेरा ज़िक्र न करना,

शायद वो मेरे हाल पे बेशक रो दें,
इस बार बहारों से मेरा ज़िक्र ना करना

ले जायेंगे गहराई में तुम को भी बहा कर,
दरिया के किनारों से मेरा ज़िक्र न करना

वो "एक" शख्स मिले तो उससे हर बात करना
सिर्फ इशार्रों में ही बात ना करना...

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ


वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

फ़ुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे
ज़ौक़-ए-नज़ारा-ए-जमाल कहाँ

दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-ख़त-ओ-ख़ाल कहाँ

थी वो इक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

हमसे छूटा क़िमारख़ाना-ए-इश्क़
वाँ जो जायेँ गिरह में माल कहाँ

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ

मुज़महिल हो गये क़ुवा "ग़ालिब"
वो अनासिर में ऐतदाल कहाँ

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं


सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं

याद थी हमको भी रंगा-रंग बज़्माराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं

थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं

क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँहो गईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलैख़ा ख़ुश के महवे-माह-ए-कनआँ हो गईं

जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा के शमएं दोफ़रोज़ाँ हो गईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशाँ हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुलबुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं

वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मतसे मिज़गाँ हो गईं

बस कि रोका मैंने और सीने में उभरींपै ब पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं

वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थीं जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं

जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं

हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गईं, अज़ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं

यूँ ही गर रोता रहा "ग़ालिब", तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि, वीराँ हो गईं

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है


हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है

October 15, 2009

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी...

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

निकलना खुल्द से आदम का सुनते हैं आये हैं लेकिन,
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले.

मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले.

खुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा जालिम,
कहीं ऐसा ना हो, यां भी वही काफिर सनम निकले.

कहाँ मैखाने का दरवाज़ा "ग़ालिब" और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं, कल वो आता था के हम निकले.

कब से हूँ क्या बताऊँ...

क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूं गर हिसाब में.

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला ना दिया हो शराब में.

ता फिर ना इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गए आये जो ख्वाब में.

ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में.

October 12, 2009

आँख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा

आँख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो खिलवत-ऐ-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

तुम सर-ऐ-राह-ऐ-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ऐ-रिफ़ाक़त से उतर जाएगा,

ज़िन्दगी तेरी अता है तो यह जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा

October 11, 2009

ज़िंदगी का ये कारवाँ तन्हा

सफ़र तन्हा , रास्ता तन्हा
ज़िंदगी का ये कारवाँ तन्हा
साथी मिले , साथी चले
चल पड़े हम भी आगे तन्हा
साथ उसका होगा ना होगा , उलझने बहुत
और ख़याल तन्हा
सफ़र तन्हा रास्ता तन्हा
ज़िंदगी का ये कारवाँ तन्हा
रिश्ते छूटे साथ छूटा
निकले है हम इस कदर तन्हा
ढूँढने को अपनी मंज़िल, चल रहा
हर शख्स तन्हा......

चंद लम्हाते हिज्र का तमाशा देखो

चंद लम्हाते हिज्र का तमाशा देखो
आब-ओ-दाना है यूँ कर उजड़ता देखो
बानगी वस्ल के लम्हों की क्या बतलायें
मिला हो रोते बच्चे को खिलौना देखो
भागती दौड़ती ज़िन्दगी की मसरुफियत में
हुआ है गुम यहीं-कहीं बचपना देखो
वो शख्स इक बूँद की गुजारिश थी जिसे
सागर है मिला फिर भी मचलता देखो
वो 'मारीच' है कभी भी मिल न पाएगा
क्यों बंद आँख से उसे बारहा देखो
ज़ाहिर हो चले राज़ वहशत के सभी
क्यों उस वहशी में तुम रहनुमा देखो
दीवाना है लगे वो कही 'शातिर' तो नहीं
देखो गौर से उसे एं दोस्त ज़रा देखो

October 8, 2009

फ़िज़ा में हर तरफ़ धुंध ही धुंध है,

फ़िज़ा में हर तरफ़ धुंध ही धुंध है,
कल्पना का हर झरोखा मेरे अन्दर बंद है,
बरसती ओस में भीगी यह फ़िज़ा थर्राये,
सोच मेरी लफ़्ज़ो में क्युँ ना बदल पाये,
यह नदीयां यह झरने सभी हो गये गुमसुम,
मेरी तन्हाईयों में जैसे ये सभी हो गये है गुम,
वादीयों में गुँजता हर एक गीत मधम है,
अब तो खुश रहने कि वजह भी कम है,
वक्त तो कहता है कि ये बसन्त का मौसम है,
फिर मेरे अन्दर क्युँ सर्द वीरानीयाँ कायम है,

October 7, 2009

तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा सर पे खड़ी होगी,


तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा सर पे खड़ी होगी,
फिर उस सजदे का क्या कहना, अनोखी बंदगी होगी.



नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी,
किसी की आखरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी.



दिखा दूंगा सर-ए-महफिल, बता दूंगा सर-ए-मेहशिर,
वो मेरे दिल में होंगे और दुनिया देखती होगी.



मज़ा आ जायेगा मेहशिर में फिर सुनने सुनाने का,
जुबां होगी वहां मेरी, कहानी आपकी होगी.



तुम्हें  दानिस्ता महफिल में जो देखा हो तो मुजरिम,
नज़र आखिर नज़र है, बेइरादा उठ गयी होगी

October 3, 2009

अकसर जिस्म जलता है तेरे जिस्म को छूने के लिए

लौ मेरी गोदी में पड़ा, रात की तन्हाई में
अकसर जिस्म जलता है तेरे जिस्म को छूने के लिए

हाथ उठते हैं तेरी लौ को पकड़ने के लिए
साँसें खिंच-खिंचके चटख जाती हैं तागों की तरह

हाँफ जाती है बिलखती हुई बाँहों की तलाश
और हर बार यही सोचा है तन्हाई में मैंने

अपनी गोदी से उठाकर यह तेरी गोद में रख दूँ
रुह की आग में ये आग भी शामिल कर दूँ

क्या कहूं, कैसे कहूं, सोचता - दिल डरता है...

वो उड़ती जुल्फ वो काजल वो गुलाबी सी हया
वो सादगी में भी इक नूर सा निखरता है

बरसते भीगते मौसम पे है नशा तारी
के उसके हुस्न के जलवे से कौन उभरता है

अज़ब फ़साना-e-महफिल है होश गुम हैं सभी
ज़रा ही देर वो बेपर्दा जो गुजरता है

वो दोस्त था निगेबाँ था मेरी वफाओं का
दिल आज भी वहीँ अटका वही दम भरता है

जुस्तजू उसकी है 'शातिर' है आरजू-ऐ-विसाल
क्या कहूं कैसे कहूं सोचता दिल डरता है

मै पागल हूं

मै पागल हूं
हज़ारों ख्वाहिशें दिल में मचलती रहती हैं

बेचैन रुह भटकती रही
चैन की इक सांस को दिल की धड़कन मचलती रहती हैं

बारिश भी तो थमती नहीं
दिल की धड़कन गरजने को मचलती रहती हैं

जनाज़ा कब्र का करता रहा इन्तज़ार
ज़िन्दा लाश दिल की धड़कन रुकने को मचलती रहती हैं

शरबती आँख में फैला है काजल के यूँ!!!

शरबती आँख में फैला है काजल के यूँ
लरजती शाम में श्यामल सा बादल के यूँ

खूबसूरती तमाम खुदा ने लुटा दी यहीं
ओढा है वादी ने धुंध का आँचल के यूँ

तो भी साथ होता है जब वो नहीं होता
दिमाग-ओ-दिल में है मची खलबल के यूँ

कुछ अल्फाज़ ले कर चन्द खुश लम्हों से
है संवारी सजाई मैने ग़ज़ल के यूँ

कुछ चुनिन्दा मिसरे

आप के पाओं के नीचे मेरा दिल है,
एक ज़रा आपको ज़हमत तो होगी, पर क्या आप ज़रा हटेंगे?

अल्लाह रे ये नाजुकी, चमेली का एक फूल,
सर पर जो रख दिया तो कमर तक लचक गयी||

उनसे छीके से कोई चीज़ उतरवाई है,
काम का काम है, अंगडाई की अंगडाई है||

क्या नजाकत है कि आरिज़ उनके नीले पड़ गए,
हमने तो बोसे लिए थे ख्वाब में तस्वीर के ||

कमसिनी है तो जिदे भी हैं निराली उनकी,
आज ये जिद है कि हम दर्द-ए-जिगर देखेंगे||

October 2, 2009

ज़िन्दगी का कोई और ही किनारा होगा

देखो पानी मे चलता एक अन्जान साया,
शायद किसी ने दूसरे किनारे पर अपना पैर उतारा होगा
कौन रो रहा है रात के सन्नाटे मे
शायद मेरे जैसा तन्हाई का कोई मारा होगा
अब तो बस उसी किसी एक का इन्तज़ार है,
किसी और का ख्याल ना दिल को ग़वारा होगा
ऐ ज़िन्दगी! अब के ना शामिल करना मेरा नाम
ग़र ये खेल ही दोबारा होगा
जानता हूँ अकेला हूँ फिलहाल
पर उम्मीद है कि दूसरी ओर ज़िन्दगी का कोई और ही किनारा होगा

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया


कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं
उनको क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया
किस लिए जीते हैं हम किसके लिए जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त!
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

देखा है जिंदगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
ऐ रूहे-उम्र जाग, कहां सो रही है तू
आवाज दे रहें पयम्बर सलीब से
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएं बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से

तुम अपना रंजो-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें उन की क़सम, ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो
मैं देखूं तो सही, दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो
ये माना मैं क़ाबिल नहीं हूं इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
वो दिल जो मैंने मांगा था मगर ग़ैरों ने पाया था
बड़ी शै है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया,
बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया,
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया,
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया,
गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया


जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई