August 27, 2010
खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में
जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।
एक पुराना खत खोला अनजाने में
जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।
August 20, 2010
ज़रा चेहरे से कमली
ज़रा चेहरे से कमली को हटा दो या रसूल-अल्लाह,
हमें भी अपना दीवाना बना दो या रसूल-अल्लाह,
मोहब्बत ग़ैर से मेरी छुड़ा दो या रसूल-अल्लाह,
मेरी सोई हुई क़िस्मत जगा दो या रसूल-अल्लाह,
बड़ी क़िस्मत हमारी है के उम्मत में तुम्हारी हैं,
भरोसा दीन-ओ-दुनिया में तुम्हारा या रसूल-अल्लाह,
अंधेरी कब्र में मुझको अकेला छोड़ जायेंगे,
वहां हो फ़ज़ल से तेरे उजाला या रसूल-अल्लाह,
ख़ुदा मुझको मदीने पे जो पहुँचाये तो बेहतर है,
के रोज़े पर ही दे दूंजां उजाकर या रसूल-अल्लाह,
हमें भी अपना दीवाना बना दो या रसूल-अल्लाह,
मोहब्बत ग़ैर से मेरी छुड़ा दो या रसूल-अल्लाह,
मेरी सोई हुई क़िस्मत जगा दो या रसूल-अल्लाह,
बड़ी क़िस्मत हमारी है के उम्मत में तुम्हारी हैं,
भरोसा दीन-ओ-दुनिया में तुम्हारा या रसूल-अल्लाह,
अंधेरी कब्र में मुझको अकेला छोड़ जायेंगे,
वहां हो फ़ज़ल से तेरे उजाला या रसूल-अल्लाह,
ख़ुदा मुझको मदीने पे जो पहुँचाये तो बेहतर है,
के रोज़े पर ही दे दूंजां उजाकर या रसूल-अल्लाह,
August 6, 2010
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
August 2, 2010
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा[1] लेकर
शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब[2]
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर
मुझसा मुश्ताक़े-जमाल[3] एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा[4] लेकर
तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त[5] में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर
वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर
शब्दार्थ:
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा[1] लेकर
शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब[2]
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर
मुझसा मुश्ताक़े-जमाल[3] एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा[4] लेकर
तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त[5] में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर
वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर
शब्दार्थ:
August 1, 2010
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे
सामने-चश्मे-गुहरबार[1] के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे
ख़ाली ऐ चारागरों[2] होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे
पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम[3] से गुज़र जायेंगे
आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी[4] अरक़-ए-शर्म[5] से तर जायेंगे
हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे
रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह[6] नज़रों से यारों के उतर जायेंगे
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे
शब्दार्थ:
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे
सामने-चश्मे-गुहरबार[1] के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे
ख़ाली ऐ चारागरों[2] होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे
पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम[3] से गुज़र जायेंगे
आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी[4] अरक़-ए-शर्म[5] से तर जायेंगे
हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे
रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह[6] नज़रों से यारों के उतर जायेंगे
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे
शब्दार्थ:
June 17, 2010
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़
क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़
ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना
शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये
नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये
बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये
ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये
आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है
समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है
ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ
आये, ये गुवे और ये मैदाँ!
आम के आगे पेश जावे ख़ाक
फोड़ता है जले फफोले ताक
न चला जब किसी तरह मक़दूर
बादा-ए-नाब बन गया अंगूर
ये भी नाचार जी का खोना है
शर्म से पानी पानी होना है
मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है
न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार
जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार
और दौड़ाइए क़यास कहाँ
जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ
जान में होती गर ये शीरीनी
'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी
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